भारत में ही बनती हैं हिंदू - मुस्लिम एकता की मिसाल पेश करने वाली फिल्में

Story by  मंजीत ठाकुर | Published by  [email protected] | Date 11-06-2023
हिंदू - मुस्लिम एकता की मिसाल पेश करने वाली फिल्में
हिंदू - मुस्लिम एकता की मिसाल पेश करने वाली फिल्में

 

मंजीत ठाकुर

हाल में आई कुछ फिल्मों ने भले ही हिंदू और मुस्लिम समुदायों के बीच खाई को चौड़ा करके उस पर बॉक्स ऑफिस की सवारी गांठने की जुगत लगाई हो और दर्शक वर्ग भी उदार और सांप्रदायिक दर्शकों के रूप में बंट गया हो. यहां तक कि पठान जैसी मसाला देशभक्ति फिल्म को भी चलाने से पहले पब्लिसिटी स्टंट के रूप में जज्बात उभार दिए गए. लेकिन मौलिक रूप से हिंदुस्तानी सिनेमा इससे बचा रहा है. 

Amitabh bachchan as Muslim

करीब सवा सौ साल पुराने हिंदुस्तानी सिनेमा ने हिंदी और उर्दू, हिंदू और मुस्लिम, पारसी थियेटर, पौराणिक कहानियों और मुस्लिम परंपरा की कहानियों को समान रूप से फिल्में बनाने के लिए बरता है. हालांकि, राष्ट्रीय चेतना में अलग किस्म की गुटबाजी, टूट-फूट और फूट पिछले दिनों में बढ़ी है और सिनेमा में भी यह असर दिखा है लेकिन यह अभी भी हाशिए पर है. अभी हिंदी सिनेमा का मूल स्वर वही है जिसमें शाहरुख खान का नाम राज आर्यन हैं आमिर खान भुवन और लाल सिंह चड्डा, सलमान खान चुलबुल पांडे और अमिताभ बच्चन विजय के साथ-साथ इकबाल हैं.

पारंपरिक रूप से देखें तो धर्म हिंदी सिनेमा के लिए मसला नहीं रहा है. राष्ट्रीय आंदोलन के वक्त अंग्रेजों ने सेंसरशिप लागू कर दी थी, हो सकता है कि यह एक वजह रही हो कि उन दिनों फिल्मों में विवादास्पद मुद्दों से क्यों बचा जाता था. 

Dilip Kumar in Bairag

आजादी के बाद लोगों को पहला मकसद राष्ट्र-निर्माण था. शुरू में लोगों के पास सपने थे, बराबरी के, समृद्धि और खुशहाली के. इसलिए साम्यवादी सपनों वाली फिल्में बनती थी. हमने मदर इंडिया, दो बीघा जमीन, और नया दौर जैसी फिल्में देखीं. कुछ फिल्मों में जाति-प्रथा और छुआछूत पर चोट की गई. साम्यवाद के प्रभाव में सामंतवाद, जमींदारी की बुराई की गई, रोजगार और मकान की कमियों की ओर इशारा किया गया. इस दौर में साहूकार और महाजन फिल्मों के खलनायक होते थे.

हैरत की बात रही कि विभाजन के ठीक बाद भी इस विभीषिका पर फिल्में नहीं बनाई गईं और बनीं भी तो बहुत कम बनीं. इस दौर में फिल्मों में एक खास फॉर्मूला चला कि मेले या भीड़-भाड़ में खोया बच्चा दूसरे धर्म के घर में जाकर पलता है और वह दोनों धर्मों का आदर करता है. पचास और साठ के दशक में कुछ फिल्में मुस्लिम सोशल्स भी बनती थीं जिनमें सभी पात्र मुस्लिम होते थे और उन फिल्मों में धर्म नहीं, मुस्लिम समाज मुख्य होता था. 

Amitabh Bachchan in Gulabo sitabo

फिल्मी स्टीरियोटाइप यह रहा कि मुस्लिम किरदार अगर हीरो न हो (कुली में अमिताभ, अमर अकबर एंथनी में ऋषि कपूर वगैरह) तो वह उर्दू बोलेगा. आदाब और खुदा हाफिज के साथ संबोधन करेगा और दाढ़ी जरूर रखेगा. हालांकि, ईसाई महिलाओं के नाम भी इस दौर में रोजी और मारिया ही होते थे और पारसी लोग हर किसी को डीकरा कहकर बुलाते थे. सिख लोग आमतौर पर हंसोड़ और जोर-जोर से बोलने वाले लोग दिखाए गए.

पर इन सभी किरदारों में इनकी धार्मिक पहचान कभी इनका खलनायकत्व नहीं बनी. 1961 में देवानंद की फिल्म अल्लाह तेरो नाम... सांप्रदायिक सद्भाव की मिसाल पेश करती है. यह फिल्म भारत-चीन युद्ध के कैनवास पर बनी है और फिल्म में स्पष्ट संदेश है कि किसी देश का सम्मान उस देश की महिलाओं की सुरक्षा और सम्मान से जुड़ा होता है.

साल 2006 में आई फिल्मडोर दो भारतीय महिलाओं, एक राजस्थानी हिंदू और एक हिमाचली मुस्लिम के संवेदनशील चित्रण के लिए आज भी दर्शकों और आलोचकों को याह है. यह उन दुर्लभ भारतीय फिल्मों में से एक है जिसमें केंद्रीय चरित्र कोई मर्द नहीं है. 

salman Khan as chulbul pandey

इस फिल्म में एक मुस्लिम महिला ही अपनी हिंदू सहेली की मदद करती है. हालांकि, कंट्रास्ट यह है कि हिंदू विधवा की तो दुर्दशा दिखाई गई है लेकिन मुस्लिम महिला अपेक्षया अधिक आधुनिक दिखाई गई है.

ऐसी एक अन्य फिल्म इकबाल थी जो 2005 में आई थी. मूक और बधिर मुस्लिम नायक इकबाल क्रिकेट में कामयाब होना चाहता है और अपनी मेहनत के दम पर कामयाब हो भी जाता है. इकबाल की मुस्लिम पहचान को उनकी सफलता में बाधा के रूप में नहीं दिखाया गया है, भले ही फिल्म हिंदू गुरुजी (उसके कोच) का मजाक उड़ाती है.

इसी तरह,2008 में रिलीज हुई फिल्महल्‍ला बोल में, एक मुस्लिम लड़का अशफाक अपनी मुस्लिम पहचान के बावजूद सुपरस्टार समीर खान बन जाता है. खेल पर आधारित एक और फिल्म, चक दे! इंडिया 2007में आई थी और इसमेंएक मुस्लिम हॉकी कोच की कहानी बयान की गई है.

ऐसी और भी कई फिल्में हैं जिनमें हिंदू और मुसलमान घनिष्ठ मित्र या सहयोगी के रूप में दिखाई देते हैं. अमिताभ बच्चन वाली फिल्म अंधा कानून में, विजय और खान दोनों ही समाज में आपराधिक तत्वों द्वारा पीड़ित हैं और बदला लेने के लिए विजय की निजी लड़ाई में खान एक महत्वपूर्ण सहयोगी बन जाता है.

Shreyas talpade in Iqbal

कई ऐसी फिल्में हैं जिनमें मुस्लिम किरदार 'गेम-चेंजिंग' भूमिका में हैं. जंजीर (1973)में, शेर खान (प्राण) बदला लेने के मिशन में एक हिंदू पुलिस अधिकारी की मदद करता है. राख (2001)में आमिर खान (उनका स्क्रीन नाम भी) को एक हिंदू पुलिस अधिकारी द्वारा अपनी प्रेमिका के बलात्कार का बदला लेने में मदद की जाती है.

बस इतना सा ख्वाब है (2001)में नावेद अली मुख्य प्रेरणा हैं जो हिंदू नायक सूरजचंद के जीवन को बदल देते हैं. प्यार की जीत (1987)में, अन्य भ्रष्ट हिंदू डॉक्टरों के विपरीत, एक मुस्लिम डॉक्टर रहमान को एक ईमानदार और दयालु व्यक्ति के रूप में दिखाया गया है.

हे राम (2000)में अमजद खान नाम का किरदार अंततः हिंदू नायक को गांधी की हत्या करने से रोकता है. मुन्ना भाई एमबीबीएस (2003)में, जहीर की मौत कहानी में एक महत्वपूर्ण मोड़ है.

खुद्दार (1982) में, एक मुसलमान दो अलग-अलग युवा भाइयों को आश्रय प्रदान करता है. ए वेडनसडे (2008) में, जबकि कई आतंकवादी मुस्लिम हैं, सबसे ईमानदार पुलिस अधिकारियों में से एक किरदार मुस्लिम भी है. यादों की बारात (1973) में, हिंदू शंकर का सबसे अच्छा दोस्त उस्मान है, जो एक मुसलमान है. विधाता (1982) में हिंदू नायक द्वारा अपने मुस्लिम केयरटेकर की हत्या का बदला फिल्म का केंद्रीय विषय बन जाता है. जूनून (1978) में मुस्लिम नायक ने 1857 में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की सेवा में अपने प्रेम के हित का त्याग किया. खुदा गवाह (1992) में, अमिताभ बच्चन, काबुल के एक पठान की भूमिका निभाते हुए, एक हिंदू पुलिस अधिकारी से मदद लेते हैं. 

amitabh as pathan in Khuda gawah

मुकद्दर का सिकंदर (1978) में, अमिताभ को एक मुस्लिम महिला द्वारा गोद लिया जाता है और बाद में एक मुस्लिम दरवेश उनका मार्गदर्शन करते हैं. वह बचपन से एक हिंदू लड़की से प्यार करता है लेकिन कभी अपनी भावनाओं को व्यक्त नहीं कर पाता. बाद में, वह अपने प्यार के लिए अपना जीवन बलिदान कर देता है.

गुलाम-ए-मुस्तफा (1997) में एक हिंदू महिला और एक मुस्लिम पुरुष के बीच शुरुआती नफरत और कड़वाहट अंततः उनके आपसी विश्वास से दूर हो जाती है. फ्योडोर दोस्तोएव्स्की की लघु कहानी व्हाइट नाइट्स का एक रूपांतरण सांवरिया (2007) में, मुस्लिम लड़की सकीना हिंदू लड़के रणबीर राज को आकर्षित करती है लेकिन अंततः अपने पुराने प्रेमी इमान के साथ चली जाती है.

शोले (1975) में इमाम साहब अन्य सभी की तुलना में अधिक साहसी और प्रेरक व्यक्ति के रूप में दिखाए गए हैं. अन्य ग्रामीण, जो खलनायक के खिलाफ लड़ने में संकोच करते हैं. वहीं इमाम साहब ही हैं जो अपने बेटे को खोने के बाद भी दूसरों को इस तरह के बलिदान के लिए तैयार रहने और अपने आत्मसम्मान को एक दुष्ट डाकू को बेचने के बजाय सम्मान का जीवन जीने के लिए प्रेरित करते हैं.

इसके साथ ही सात हिंदुस्तानी (1969), क्रांति (1981), देशप्रेमी (1982), कर्मा (1986), चाइना गेट (1998), लगान (2001), ईमान धरम (1977), इंसानियत (1994) और जैसी फिल्मों का जिक्र भी किया जाना चाहिए.

dor poster

एक अन्य फिल्म, कच्चे धागे (1999) में, हिंदू और मुस्लिम सौतेले भाई अपनी मां मरियम को बचाने के लिए एकजुट होते हैं. कुछ फिल्मों के शीर्षक से कुछ ऐसा ही संदेश दिखाई देता है जो देखने के लिए उपलब्ध नहीं हैं, उदाहरण के लिए, शंकर हुसैन (1977, हिंदी में), पंडित और पठान (1977, हिंदी में), राम रहीम (1930, हिंदी में), राम रहीम (1983, उड़िया में), और राम रॉबर्ट रहीम (1980, हिंदी अमर अकबर एंथोनी (1977) का तेलुगु रीमेक, जिसे अकबर अमर एंथोनी (1978) के रूप में पाकिस्तान में भी बनाया गया था; सी एफ जैन (2010).

इसके अलावा आप के दीवाने (1980) और पापी देवता (1995) दोनों राम और रहीम नाम के दो लोगों की दोस्ती पर आधारित हैं, हालांकि फिल्मों के शीर्षक से ऐसा नहीं लगता है.

जौहर-महमूद इन गोवा (1965) में, राम और रहीम एक बार फिर एक साथ दिखाई देते हैं और गोवा के पांच सदियों लंबे पुर्तगाली कब्जे के खिलाफ विद्रोह करते हैं. कल की आवाज़ (1992) एक दुर्लभ राष्ट्रीय सुरक्षा फिल्म हो सकती है जिसमें गृह मंत्री और नायक पुलिस अधिकारी सहित पूरी कास्ट मुस्लिम है.

इसी तरह, माँ और ममता (1970) में, एक मुस्लिम एक हिंदू महिला को आश्रय प्रदान करता है, जो मूल रूप से एक ईसाई पुजारी द्वारा दिए गए लड़के को पालती है. चक दे इंडिया! में विभिन्न भाषाओं को बोलने वाले हॉकी खिलाड़ियों में एक ईसाई, एक मुस्लिम और एक सिख खिलाड़ी भी शामिल हैं, जो अंततः राष्ट्रीय जीत के लिए खेलने के लिए एक टीम के रूप में एकजुट होते हैं.

Rishi kapoor in Mulk

विजेता (1982) में चार दोस्त वायु सेना अकादमी में सभी पायलट विभिन्न धर्मों से हैं, हिंदू वेंकट, मुस्लिम असलम, ईसाई विल्सन और सिख अंगद. अंगद को एक ईसाई अन्ना के साथ रोमांटिक रिश्ते में भी दिखाया गया है. ऐसा लगता है कि ऐसी असंख्य भारतीय फिल्में हैं जिनमें विभिन्न धर्मों के लोग व्यक्तिगत मित्र या राष्ट्र-निर्माण या रक्षा परियोजनाओं में सहयोगी हैं,और उनके इस काम मे उनकी धार्मिक पहचान कहीं नहीं होती है.

वी. शांताराम की पडोसी (1941) पहली भारतीय फिल्म हो सकती है जहां हिंदू-मुस्लिम एकता कहानी का मुख्य जोर है. यह एक गांव में आस-पास रहने वाले एक हिंदू और एक मुस्लिम परिवार की कहानी है, प्रत्येक का नेतृत्व एक कुलपति, ठाकुर और मिर्जा करते हैं, जो एक बांध-निर्माण कंपनी के लिए काम करते हैं.

अब बात कुछ उन फिल्मों की, जिसमें मुस्लिम समाज के भीतर ही सुधार की कोशिशों की कहानी कही गई है. इनमें से एक है खामोश पानी.

खामोश पानी की तरह, खुदा के लिए (2007) मुसलमानों के बीच सामाजिक समस्याओं के बारे में एक दुर्लभ पाकिस्तानी फिल्म है. यह एक दकियानूसी इस्लाम में सुधार का समाधान चाहता है. संभवत: पहली बार किसी फीचर फिल्म में किसी कट्टरपंथी मुस्लिम नेता को मासूम नौजवान का ब्रेनवॉश करते हुए दिखाया गया है.

हालांकि, यह ऐसे आतंकवादियों के कारण है कि बड़े मुस्लिम डायस्पोरा को भी एक संदिग्ध प्रकाश में देखा जाता है - एक ऐसा विषय जो भारतीय फिल्मों न्यूयॉर्क (2009) और माई नेम इज खान (2010) में भी दिखाई देता है. बहरहाल, खुदा के लिए पाकिस्तानी फिल्म होते हुए भी अपने सब्जेक्ट को लेकर जितनी बोल्ड है, उतनी भारत में कोई फिल्म नहीं है.

हिंदी सिनेमा अपने मूल स्वरूप में सेकुलर है. जिसमें सिनेमा का कथ्य भी—एकाध अपवाद को छोड़ दें—तो सेकुलर है और फिल्म इंडस्ट्री की संरचना भी, जिसमें प्रतिभा को तरजीह दी जाती है और किसी की धार्मिक पहचान मायने नहीं रखती.